भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनादि परम्परा के श्रेष्ठ कला मनीषी तानसेन को श्रद्धांजलि एवं स्वरांजलि देने के लिये ग्वालियर में मनाये जाने वाले तानसेन समारोह ने सौ वर्ष की आयु पूर्ण कर ली है।
इस समारोह की सबसे बड़ी खूबी सर्वधर्म समभाव और इससे जुड़ी अक्षुण्ण परम्पराएं हैं।
भारतीय संस्कृति में रची बसी गंगा-जमुनी तहजीब के सजीव दर्शन तानसेन समारोह में होते हैं। मुस्लिम समुदाय से बावस्ता देश के ख्यातिनाम संगीत साधक जब इस समारोह में भगवान कृष्ण व राम तथा नृत्य के देवता भगवान शिव की वंदना राग-रागिनियों में सजाकर प्रस्तुत करते हैं, तो साम्प्रदायिक सदभाव की सरिता बह उठती है।
तानसेन समारोह का प्रारंभ शहनाई वादन से होता है। इसके बाद ढ़ोली बुआ महाराज की हरिकथा और फिर मीलाद शरीफ का गायन। सुर सम्राट तानसेन और प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार पर चादर पोशी भी होती है। ढ़ोली बुआ महाराज अपनी संगीतमयी हरिकथा के माध्यम से कहते हैं कि धर्म का मार्ग कोई भी हो, सभी ईश्वर तक ही पहुंचे हैं। उपनिषद् का भी मंत्र है “एकं सद् विप्र: बहुधा वदन्ति”। रियासतकाल में फरवरी 1924 में ग्वालियर में “उर्स तानसेन” के रूप में शुरू हुए इस समारोह का आगाज हरिकथा व मौलूद (मीलाद शरीफ) के साथ ही हुआ था। तब से अब तक उसी परम्परा के साथ तानसेन समारोह का आगाज होता आया है। इतनी सुदीर्घ परम्परा के उदाहरण बिरले ही हैं। तानसेन समारोह में नए आयाम तो जुड़े, पर पुरानी परम्पराएं अक्षुण्ण रही हैं। अब यह समारोह विश्व संगीत समागम का रूप ले चुका है। साथ ही समारोह की पूर्व संध्या पर उपशास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम “गमक” का आयोजन भी होता है। इस साल शताब्दी समारोह होने से पूर्व रंग के रूप में मध्यप्रदेश के साथ-साथ देश के अन्य राज्यों में भी संगीत सभाएं आयोजित की गईं।
हर जाति, धर्म व सम्प्रदाय से ताल्लुक रखने वाले श्रेष्ठ व मूर्धन्य संगीत कला साधकों ने कभी न कभी इस आयोजन में अपनी प्रस्तुति दी है। शास्त्रीय गायक सुश्री असगरी बेगम, पं. भीमसेन जोशी व डागर बंधुओं से लेकर मशहूर शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ, सरोद वादक अमजद अली खाँ, संतूर वादक पं. शिवकुमार शर्मा, मोहनवीणा वादक पं. विश्वमोहन भट्ट जैसे मूर्धन्य संगीत कलाकार इस समारोह में गान महर्षि तानसेन को स्वरांजलि देने आ चुके हैं। वर्ष 1989 में तानसेन समारोह में शिरकत करने आये भारत रत्न पंडित रविशंकर ने कहा था ‘”यहां एक जादू सा होता है, जिसमें प्रस्तुति देते समय एक सुखद रोमांच की अनुभूति होती है'”। एक बार मशहूर पखावज वादक पागलदास भी तानसेन के उर्स के मौके पर श्रद्धांजलि देने आये, लेकिन रेडियो के ग्रेडेड आर्टिस्ट नहीं होने के कारण समारोह में भाग नहीं ले सके। उन्होंने तानसेन की मजार पर ही बैठ कर पखावज का ऐसा अद्भुत वादन किया कि संगीत रसिक मुख्य समारोह से उठकर उनके समक्ष जा कर बैठ गये।
“तानसेन संगीत समारोह” की यह भी खूबी रही है कि पहले राज्याश्रय एवं स्वाधीनता के बाद लोकतांत्रिक सरकार के प्रश्रय में आयोजित होने के बावजूद इस समारोह में सियासत के रंग कभी दिखाई नहीं दिये। यह समारोह तो सदैव भारतीय संगीत के विविध रंगों का साक्ष्य बना है। आधुनिक युग में शैक्षिक परिदृश्य से जहां गुरू शिष्य परम्परा लगभग ओझल हो गई है। भारतीय लोकाचार में समाहित इस महान परम्परा को संगीत कला के क्षेत्र में आज भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। तानसेन समारोह में भी भारत की इस विशिष्ट परम्परा के सजीव दर्शन होते हैं।
संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहां बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते है, तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढकर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपरि हैं।
लगभग 505 वर्ष पूर्व ग्वालियर जिले के बेहट गांव की माटी में मकरंद पाण्डे के घर जन्मा ‘”तन्ना मिसर'” उर्फ तनसुख अपने गुरू स्वामी हरिदास के ममतामयी अनुशासन में एक हीरे सा परिष्कार पाकर धन्य हो गया। तानसेन की आभा से तत्कालीन नरेश व सम्राट भी विस्मित थे और उनसे अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिये निवेदन करते थे। गान महर्षि तानसेन की प्रतिभा से बादशाह अकबर भी स्तम्भित हुए बिना न रह सके। बादशाह की जिज्ञासा यह भी थी कि यदि तानसेन इतने श्रेष्ठ हैं तो उनके गुरू स्वामी हरिदास कैसे होंगे। यही जिज्ञासा बादशाह अकबर को वेश बदलकर बृन्दावन की कुंज-गलियों में खींच लाई थी। वैज्ञानिक शोधों में संगीत के प्रभाव से पशु, पक्षी, वनस्पति, फसलों आदि पर भी असर प्रमाणित हुआ है। तानसेन के समकालीन और अकबर के नवरत्नों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना द्वारा रचित इस दोहे में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि “विधिना यह जिय जानि के शेषहि दिये न कान। धरा मेरू सब डोलि हैं, सुनि तानसेन की तान”। कुछ इतिहासकारों का मत है कि यह कालजयी दोहा सूरदास ने अपने मित्र तानसेन के सम्मान में रचा था। बहरहाल, यह दोहा किसी की भी रचना हो, पर इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह दोहा गान मनीषी तानसेन के उच्चकोटि के गायन को चरितार्थ करता है।
आरंभ में तानसेन जब संगीत का ककहरा सीख रहे थे, तब ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था। तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई। राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण यहां के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी। तब तानसेन भी वृंदावन चले गये और वहां उन्होनें स्वामी हरिदास जी एवं गोविन्द स्वामी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की। संगीत शिक्षा में पारंगत होने के उपरांत वे शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खां के आश्रय में रहे। इसके पश्चात बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचन्द्र की राजसभा में सम्मानजनक स्थान पर सुशोभित हुए। मुगल सम्राट अकबर ने तानसेन के गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया।
तानसेन प्रथम संगीत मनीषी थे, जिन्होंने राग मल्हार में कोमल गांधार और निषाद के दोनों रूपों का बखूबी प्रयोग किया। तानसेन को मियां की टोड़ी के आविष्कार का भी श्रेय है। कंठ संगीत में तानसेन अद्वितीय थे। अबुल फजल ने “आईन-ए-अकबरी” में तानसेन के बारे में लिखा है कि “उनके जैसा गायक हिंदुस्तान में पिछले हजार वर्षों में कोई दूसरा नहीं हुआ है” उन्होंने जहां “मियां की टोड़ी” जैसे राग का आविष्कार किया, वहीं पुराने रागों में परिवर्तन कर कई नई – नई सुमधुर रागिनियों को जन्म दिया। “संगीत सार” और “राग माला” नामक संगीत के श्रेष्ठ ग्रंथों की रचना का श्रेय भी तानसेन को है।
कुछ विद्वानों के अनुसार अकबर की कश्मीर यात्रा के समय 15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लाहौर में इस महान संगीत मनीषी ने अपनी इह लीला समाप्त की। वहीं कुछ विद्वानों का मत है कि उनका देहावसान 16वीं शताब्दी में आगरा में हुआ था। तानसेन की इच्छानुसार उनका शव ग्वालियर लाया गया और यहां प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार के पास ही संगीत महर्षि को समाधिस्थ कर दिया गया।
इस महान संगीतकार की स्मृति में सन् 1924 से प्रतिवर्ष ग्वालियर में मूर्धन्य संगीतज्ञों का कुंभ लगता है, जहां देश के चोटी के कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर संगीत सम्राट तानसेन को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। संगीत शिरोमणि तानसेन की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए मध्यप्रदेश शासन द्वारा सन् 1980 में राष्ट्रीय तानसेन सम्मान की स्थापना की गई। वर्ष 1985 तक इस सम्मान की राशि पांच हजार रूपये थी। वर्ष 1986 में इसे बढ़ाकर पचास हजार रूपये कर दिया गया और बाद में पुरस्कार के रूप में एक लाख रूपये, फिर दो लाख रूपये व प्रशस्ति पट्टिका भेंट की जाती रही। राज्य सरकार द्वारा अब पुरस्कार राशि बढ़ाकर पांच लाख रूपये कर दी गई है।