रिपोर्ट नलिन दीक्षित
आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस है। प्रेस/मीडिया को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। जिस प्रकार से लोकतन्त्र के तीन स्तंभों के काम काज पर प्रश्न चिह्न लगते रहे हैं, वैसे ही प्रश्न चिह्न प्रेस पर भी लगते हैं। इसके बावजूद ये कहा जाता है कि प्रेस मजबूत तो लोकतन्त्र मजबूत!प्रेस के पास जितने सवाल लोकतन्त्र उतना ही स्वस्थ।परंतु आज के संदर्भ में ऐसा कुछ नहीं लगता।संभव है ये मेरी नजर का दोष हो,परंतु जो कुछ महसूस हो रहा है, मीडिया से जुड़े साथी चर्चा करते हैं,उससे उनके भीतर का एक भय उनके शब्दों में परिलक्षित होता है। मैं साफ कहता हूँ कि मुझे डर लगता है, संभव है बाकी संकोच के कारण ऐसा ना कह पाते हों।एक पत्रकार साथी आया। पूछने लगा, भाई साहब क्या करूँ? मैंने यही कहा कि खामोश रहो।कुछ भी लिखने से बाज आओ। क्योंकि आपके साथ जो कुछ होगा, उसमें पब्लिक तो क्या मीडिया के पूरे साथी भी आपके साथ खड़े नहीं होंगे। वैसे भी आम जन पत्रकार को ही गलत मान लेगा।वो पत्रकार का साथ देकर बड़े पद, कद, राजनेता और पैसे वालों से बिगाड़ क्यों लेगा! उसे मेरा सुझाव पसंद आया। उसने धन्यवाद दिया और लौट गया। शाम को भी दो-चार साथियों ने इसी प्रकार की चर्चा पाता।पत्रकार हूँ, सवाल छोड़ ही नहीं पाता। सवाल ये कि किसको, किस से भय मुक्त करोगे? मुझे करोगे भय मुक्त! करो मेरे परिवार को भयमुक्त! उन परिवारों को करो भय मुक्त जिनके अपराधी खुले घूम रहे हैं और परिवार डरे हुये हैं। संभव है बड़े अखबार के मालिक टीवी न्यून चैनल के संचालक भय मुक्त हों, परंतु फील्ड में रहने वाले पत्रकारों का क्या! छोटे-छोटे अखबार चला पेट पालने वालों का क्या! इनकी तो इतनी हैसियत ही नहीं होती कि वो खुल्लम खुल्ला लिख सकें।और फिर पत्रकार सवाल ही तो करता है।सवाल का जवाब है तो दे दो, वरना नो कमेंट करके साइड लाइन भी तो हुआ जा सकता है। मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि पत्रकार ही है जो पब्लिक की बात प्रशासन से लेकर ऊपर तक पहुंचाता है। एक पत्रकार ही है जो आम आदमी से लेकर शासन प्रशासन का कोप भाजन बनता है, दूसरों के हित के वास्ते सत्ता की नाराजगी का सामना करता है। क्योंकि पत्रकार का यही कर्तव्य है और यही पत्रकारिता का धर्म भी।
परंतु जब यही पत्रकार संकट में अपने आप को अकेला पाता है तो वो चिंतन करता है कि उसे क्या पड़ी है कि वो पब्लिक के हित की आवाज उठाये! उसे क्या जरूरत सत्ता से सवाल कर उसे नाराज करे! पत्रकार भी तो खामोश रह कर सत्ता की मलाई में से थोड़ा हिस्सा ले सकता है। परंतु वास्तविक पत्रकारिता करने वाले ऐसा नहीं कर पाते। बस,ऐसे ही पत्रकारों को प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से डराया जाता है। अगर यही होता रहा तो फिर जनता अकेली रह जाएगी। उसके साथ होने वाले ज्यादती, प्रताड़ना से होने वाले दर्द की आवाज दब जाएगी। कोई भी मीडिया पब्लिक सुविधा का जिक्र नहीं करेगा।शासन-प्रशासन मन मर्जी के काम करेगा, क्योंकि डरा हुआ पत्रकार,भयभीत पत्रकार कुछ कर ही नहीं सकता। इसलिये शहर को भयमुक्त करने से पहले मीडिया/पत्रकारों को भयमुक्त करना आवश्यक है। हाँ, प्रेस भयग्रस्त है तो फिर आम जनता की तो कोई बिसात ही नहीं।