पंडित सुदर्सन परसाई द्वारा बताया गया है कि -मानव जीवन में संस्कारों की प्रथम पाठशाला का नाम ही परिवार है। एक आदर्श परिवार के बिना एक आदर्श जीवन का निर्माण कदापि संभव ही नहीं। परिवार ही वो मंदिर है जिसमें माता-पिता के रूप में स्वयं वो निराकार ब्रह्म, साकार रूप में विराजमान होकर रहते हैं। सच ही कहा गया है कि जिस घर में माँ-बाप हँसते हैं, उसी घर में भगवान बसते हैं।
परस्पर प्रेम, सम्मान और सहयोग की भावना के साथ-साथ कर्त्तव्यनिष्ठा से ही मकान, घर और घर, परिवार बन जाता है। वर्तमान परिदृश्य में अथवा आज की इस सदी में हम इकट्ठे होकर ना रह सकें कोई बात नहीं लेकिन कम से कम एक होकर रहना अवश्य सीखना होगा । परिवार के साथ रहें, संस्कार के साथ रहें।
आत्मकल्याण के लिए जीवन सदैव सत्संग के आश्रय में जिया जाना चाहिए। यदि बुद्धि को परिमार्जित करते हुए उसमें प्रतिदिन कुछ श्रेष्ठ विचार, कुछ सद्विचार ना भरे जाएं तो हमारे वही कलुषित विचार जीवन के लिए जहर बनकर उसकी आत्मिक उन्नति में बाधक बन जाते हैं। भोर की प्रथम किरणों के साथ कुछ पुराने फूल झड़ जाते हैं और नयें फूल खिल उठते हैं व प्रकृति को सुवासित करते हैं।
उसी प्रकार एक नया दिन एक नईं ऊर्जा और एक नयें विचारों के साथ आता है। एक नया दिन आता है तो साथ में नवीन उल्लास और नईं आश लेकर भी आता है ताकि हम अपने जीवन को नयें विचारों से सुवासित एवं उल्लासित कर सकें। मानव मन को भी प्रतिदिन सद्विचार और सत्संग रूपी साबुन से स्वच्छ करने की जरूरत होती है ताकि विचारों की कलुषिता का मार्जन हो सके। सदा सत्संग के आश्रय में रहो ताकि हृदय की निर्मलता और विचारों की पवित्रता बनी रहे
परिवार एक मंदिर सत्संग का आश्रय
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