सिंह चौहान 2023 में बुधनी विधानसभा सीट से दावेदारी पेश कर रहे हैं। 33 साल पहले चौहान ने इसी सीट से विधायक के तौर पर चुनावी पारी का आगाज किया था। इसके अगले ही साल यानी 1991 में उनकी लोकसभा में भी पहली बार एंट्री हो गई थी। इसकी एक बड़ी वजह पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी भी थे।वाजपेयी का एक फैसला साल 1991, 10वीं लोकसभा के चुनाव हुए और नतीजों में एबी वाजपेयी ने मध्य प्रदेश की विदिशा और उत्तर प्रदेश की लखनऊ सीट से बाजी मारी थी। अब जब भारतीय जनता पार्टी की बैठकों का दौर शुरू हुआ, तो एक सीट छोड़ने का भी मुद्दा उठा। तब उन्होंने विदिशा सीट छोड़ने का फैसला किया। इसके बाद विदिशा सीट पर नए चेहरे पर मंथन तेज हुआ।
खुद वाजपेयी ने चुना चौहान का नाम ?
ऐसा कहा जाता है कि खुद वाजपेयी ने चौहान के नाम पर दिलचस्पी दिखाई थी। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने जब विदिशा सीट को छोड़ा, तब भाजपा के एक और कद्दावर नेता और राज्य के दो बार मुख्यमंत्री रहे सुंदरलाल पटवा ने चौहान का नाम आगे बढ़ाया था। 1990 में विधानसभा चुनाव पहले ही जीत चुके चौहान प्रत्याशी बने और शानदार जीत दर्ज की।अब तक सिर्फ एक बार हारे शिवराज संगठन में बड़ी जिम्मेदारियां निभा रहे शिवराज का सियासी रथ भी बगैर ब्रेक के आगे बढ़ रहा था। उनका चुनावी रिकॉर्ड बताता है कि महज 2003 विधानसभा चुनाव को छोड़ दिया जाए, तो अब तक उन्होंने कभी भी हार का सामना नहीं किया। तब वह कांग्रेस दिग्गज दिग्विजय सिंह के खिलाफ राघौगढ़ से चुनाव लड़ रहे थे। 1996, 1998, 1999 और 2004 के चुनाव उन्होंने जीते।
जब कद्दावर नेताओं को हटाकर चौहान ने संभाली MP
की गद्दी
29 नवंबर, 2005 को चौहान मध्य प्रदेश के पहली बार मुख्यमंत्री बने। साल 2018 तक यही सिलसिला चला, लेकिन 2018 में भाजपा की हार के बाद उनकी अविजित पारी पर ब्रेक लग गया था। खास बात है कि उन्होंने सीएम पद हासिल करने की दौड़ में बाबूलाल गौर और उमा भारती जैसे राज्य के बड़े नेताओं को भी पीछे छोड़ दिया था।शिवराज के पहले 8 महीने उमा भारती और 15 महीनों तक सीएम गौर रहे। ऐसा माना जाता है कि एमपी की कमान चौहान के हाथों में सौंपने में वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की बड़ी भूमिका रही थी