जीव ,जगत और जीवन इनके आसपास ही तमाम विचार, मत एवं मतान्तर जन्म लेते हैं, विस्तारित होते रहते हैं और विविध रूप- स्वरूपों में दुनिया के लोकमानस में दर्ज हो जाते हैं। ये विविध विचार और मत मतान्तर निरन्तर कालक्रमानुसार लोकमानस की स्मृतियों में उदित या अस्त होते ही रहते हैं। जगत में व्याप्त अनेकानेक मत मतान्तर में गहराई से झांकने से यह बात एकदम समझ आने लगती है कि अलग अलग मनुष्य अपने आस-पास को कैसे देखते सोचते और समझते है ?इसका ज्ञान स्वयं को और दूसरों को या समूची दुनिया जहान को भी होता ही रहता है। यों तो मत या राय भी एक विचार ही है और मतान्तर भी विचार से अलहदा एक और विचार ही तो है। किसी भी जीव को जीवन को ऊर्जावान बनाए रखने के लिए नियमित आहार का जीव की जरूरत अनुसार निरन्तर मिलते रहना जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। मनुष्य और मनुष्येतर अन्य जीव की आहार प्रक्रिया में भोजन की प्राकृतिक श्रृंखला एक समान है। जलचर ,नभचर और थलचर तीनों श्रेणी के जीव अपनी प्राकृतिक आहार श्रृंखला पर ही मूलतः निर्भर है। इसके बावजूद भी मनुष्य समाज ने आहार श्रृंखला में इतने अधिक मत मतान्तरों की रचना की है वो मनुष्यों के आहार क्रम के इतिहास का एक अलग और अनोखा आयाम है। मनुष्येतर जीव जो स्वतंत्र हैं उनका जीवन तो प्रकृति में जो भी उनकी आहार श्रृंखला के रूप में उस जगह पर उपलब्ध है कमोबेश उसी पर उनके समूचे जीवनकाल में आहार की प्राकृतिक निर्भरता चलती ही रहती है। यदि कोई जीव मनुष्य का पालतू साथी सहयोगी है तो पालनकर्ता मनुष्य जो आहार उन्हें खिलाता है उसी पर उन्हें निर्भर होना होता है।पर दुनिया भर के मनुष्य अपने स्वयं के आहार को लेकर कभी संतुष्ट नहीं होते हैं, साथ ही दूसरे मनुष्य के खान-पान,रहन- सहन पर नाना सवाल और अनर्गल टिका टिप्पणी मनुष्यों में हर समय बिना रुके और सोचे समझे अंतहीन विध्वंसक या अनर्गल टीका टिप्पणियां जाने अनजाने चलती ही रहती है, इस के उलट या अलावा कुछ न कुछ नया करने और खोजते रहने की एक अंतहीन और अनोखी श्रृंखला भी मानवीय चिंतन प्रक्रिया में स्पष्टतः दिखाई पड़ती है।
मनुष्य एक तरह से अपनी अनियंत्रित मनमर्जी का मालिक है। मनुष्य ही अकेला ऐसा प्राणी है जो अकेले अपने पोषण के लिए ही महज़ आहार नहीं करता अपनी रूचि, स्वाद और हैसियत के आधार पर भी मनुष्य स्वयं का आहार तय करता है और मन को संतुष्ट करने के लिए भी आहार ग्रहण करता है।
मनुष्य की आहार प्रक्रिया में ऐसा भी कुछ नहीं है कि हमेशा वह भूख लगने पर ही खाएगा वह कभी भी और कहीं भी खा सकता है। यही बात सोचने समझने और दूसरों की जिंदगी में हस्तक्षेप करने को लेकर भी है।इसी तरह मनुष्य अपने भोजन को लेकर कभी भी स्थिरचित्त नहीं रह पाता है ।जब जो इच्छा हो तब वह खा सकता है इच्छा न हो तो भी कोई खाने की वस्तु दिखाई दी कि खाने का मन हो गया और उसे खाने लगा इसी से मनुष्य से भिन्न जीवों के जीवन और आहार क्रम में एक तरह की एक रूपता दिखाई देती है वैसी मनुष्यों के रहन सहन और जीवन में नहीं मिलती हैं। शायद यही वजह है कि मनुष्य समाज ने अपने जीवन क्रम में आहार को लेकर इतने गहरे और व्यापक रूप स्वरूप में चिन्तन मनन और मत मतान्तरों सहित सैद्धांतिक मतभेदों के विभिन्न शास्त्रों का सृजन किया है जिसके फलस्वरूप आहार शास्त्रियों और आहार शास्त्र का एक अंतहीन सिलसिला या फौज खड़ी हो गई है।जो अपने अपने सैद्धांतिक मतभेदों को लेकर आपस में अकारण सैद्धांतिक मोहवश शाब्दिक युद्ध करती रहती है।आहार मनुष्य समाज का एक अनोखा और रोचक जीवन दर्शन बन गया है। मूल रूप से जीव जगत शाकाहारी और मांसाहारी दो रूप स्वरूप में बटा हुआ है।पर मनुष्य ने शाकाहार और मांसाहार में इतनी अधिक विविधताओं और व्यापक स्तर पर आहार जन्य विविधताओं को सृजनात्मक एवं विध्वंसात्मक रूप से विकसित किया है जिसे देखकर लगता है कि आहार मनुष्य की प्राकृतिक क्षुधा की संतुष्टि के लिए है या सृजनात्मक शक्ति की भूख को शांत करने के लिए है। शाकाहार और मांसाहार दोनों में जैव विविधता अंतहीन हैं। शाकाहार में भी मत-मतांतर अंतहीन हैं मांसाहार करने वाला शाकाहारी मनुष्य पर दया करने के भाव से चिंता व्यक्त करता है कि शाकाहारी लोग आजीवन कैसे शाकाहारी रह पाते हैं और शाकाहारी लोगों को व्यंग्यात्मक अंदाज में धास फूंस खाने वाले की संज्ञा देता रहता है। शाकाहारी लोगों के मन में यह उधेड़बुन चलती रहती हैं किसी की जिन्दगी को समाप्त कर कैसे किसी जीव को अपने निजी आहार में बदल सकते हैं? मनुष्य के पेट की क्षमता तो सीमित है पर मनुष्य के मन की क्षमता अनन्त है। इसी से मनुष्य ने अपने आहार को लेकर एक से एक बढ़कर विविधता वाले अनोखे आहारों के खाने ,पकाने और खिलाने को लेकर शास्त्र को रच दिया। जबकि महात्मा गांधी ने मनुष्य की आहार प्रक्रिया को लेकर जो सूत्र दिया वह एक दम सहज सरल है कि भूख लगने पर खाना प्रकृति है और बिना भूख के खाना विकृति है। मनुष्य सरलता को सहजता से आत्मसात नहीं कर पाता इसी से मनुष्य की आहार प्रक्रिया दिन ब दिन जटिलताओं को अपनाने की दिशा में अग्रसर होती दिखाई देती है।
आहार जीवन की अनिवार्य ऊर्जा का मूल स्त्रोत है ,आहार के बिना जीवन की गति धीमी हो जाती है और आहार की अति या कमी से भी जीवन का प्राकृतिक स्वरूप बदलने लगता है।आज की दुनिया में आहार दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार व्यवसाय बन चुका है। आहार जो जीवन की अनिवार्य ऊर्जा हैं वह उस रूप में तो है पर मनुष्य के मन की अंतहीन हलचलों के कारण केवल जीवन का प्रवाह ही नहीं दुनिया भर में आहार सबसे बड़ी व्यापार व्यवसाय की हलचल और रोजगार बनकर एक अंतहीन गतिविधियों का ऐसा क्रम बन गया है जो जीवन भर चलता रहता है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को नये नये प्रयोग करने हेतु आधारभूमि उपलब्ध करा देता है। आहार हेतु उपलब्ध प्राकृतिक श्रृंखला और मनुष्य निर्मित आहार का व्यापार व्यवसाय प्रकृति और मनुष्य के कृतित्व की अनोखी जुगलबंदी बनकर तारक मारक और उद्धारक क्षमताओं का त्रिवेणी संगम बन गई है।इस में सवाल यह उठता है कि आहार जीवन की महज़ मूल ऊर्जा का स्त्रोत हैं या जीवन का प्राकृतिक प्रवाह है!जो जीव, जगत, वनस्पति और जीवन में अनवरत प्रवाहित होता रहता है। अनिल त्रिवेदी अभिभाषक एवं स्वतंत्र लेखक
त्रिवेदी परिसर ३०४/२ भोलाराम उस्ताद मार्ग ग्राम पिपल्या राव आगरा मुम्बई राजमार्ग इन्दौर मध्यप्रदेश मोबाइल नंबर 9329947486 Email number aniltrivedi.advocate@gmail.com