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DND News 24 > Blog > dharm > श्रीयंत्र साधना से मां लक्ष्मी की अपार कृपा की प्राप्ति होती है
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श्रीयंत्र साधना से मां लक्ष्मी की अपार कृपा की प्राप्ति होती है

Nalin Dixit
Last updated: 2025/03/07 at 2:02 अपराह्न
Nalin Dixit
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22 Min Read
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रिपोर्ट नलिन दीक्षित

श्री यंत्र
चतुर्भिः शिवचक्रे शक्ति चके्र पंचाभिः।
नवचक्रे संसिद्धं श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः॥

श्रीयंत्र का उल्लेख तंत्रराज, ललिता सहस्रनाम, कामकलाविलास , त्रिपुरोपनिषद आदि विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलता है। महापुराणों में श्री यंत्र को देवी महालक्ष्मी का प्रतीक कहा गया है । इन्हीं पुराणों में वर्णित भगवती महात्रिपुरसुन्दरी स्वयं कहती हैं- ‘श्री यंत्र मेरा प्राण, मेरी शक्ति, मेरी आत्मा तथा मेरा स्वरूप है। श्री यंत्र के प्रभाव से ही मैं पृथ्वी लोक पर वास करती हूं।’’

श्री यंत्र में २८१६ देवी देवताओं की सामूहिक अदृश्य शक्ति विद्यमान रहती है। इसीलिए इसे यंत्रराज, यंत्र शिरोमणि, षोडशी यंत्र व देवद्वार भी कहा गया है। ऋषि दत्तात्रेय व दूर्वासा ने श्रीयंत्र को मोक्षदाता माना है । जैन शास्त्रों ने भी इस यंत्र की प्रशंसा की है.

जिस तरह शरीर व आत्मा एक दूसरे के पूरक हैं उसी तरह देवता व उनके यंत्र भी एक दूसरे के पूरक हैं । यंत्र को देवता का शरीर और मंत्र को आत्मा कहते हैं। यंत्र और मंत्र दोनों की साधना उपासना मिलकर शीघ्र फलदेती है । जिस तरह मंत्र की शक्ति उसकी ध्वनि में निहित होती है उसी तरह यंत्र की शक्ति उसकी रेखाओं व बिंदुओं में होती है।

मकान, दुकान आदि का निर्माण करते समय यदि उनकी नींव में प्राण प्रतिष्ठत श्री यंत्र को स्थापित करें तो वहां के निवासियों को श्री यंत्र की अदभुत व चमत्कारी शक्तियों की अनुभूति स्वतः होने लगती है। श्री यंत्र की पूजा से लाभ: शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीयंत्र की अद्भुत शक्ति के कारण इसके दर्शन मात्र से ही लाभ मिलना शुरू हो जाता है। इस यंत्र को मंदिर या तिजोरी में रखकर प्रतिदिन पूजा करने व प्रतिदिन कमलगट्टे की माला पर श्री सूक्त के पाठ श्री लक्ष्मी मंत्र के जप के साथ करने से लक्ष्मी प्रसन्न रहती है और धनसंकट दूर होता है।
यह यंत्र मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाला है। इसकी कृपा से मनुष्य को अष्टसिद्धि व नौ निधियों की प्राप्ति हो सकती है। श्री यंत्र के पूजन से सभी रोगों का शमन होता है और शरीर की कांति निर्मल होती है। इसकी पूजा से पंचतत्वों पर विजय प्राप्त होती है । इस यंत्र की कृपा से मनुष्य को धन, समृद्धि, यश, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। श्री यंत्र के पूजन से रुके हुए कार्य बनते हैं । श्री यंत्र की श्रद्धापूर्वक नियमित रूप से पूजा करने से दुख दारिद्र्य का नाश होता है । श्री यंत्र की साधना उपासना से साधक की शारीरिक और मानसिक शक्ति पुष्ट होती है। इस यंत्र की पूजा से दस महाविद्याओं कीे कृपा भी प्राप्त हो सकती है। श्री यंत्र की साधना से आर्थिक उन्नति होती है और व्यापार में सफलता मिलती है।

श्री यंत्र का निर्माण श्री यंत्र का रूप ज्यामितीय होता है। इसकी संरचना में बिंदु, त्रिकोण या त्रिभुज, वृत्त, अष्टकमल का प्रयोग होता है । तंत्र के अनुसार श्री यंत्र का निर्माण दो प्रकार से किया जाता है- एक अंदर के बिंदु से शुरू कर बाहर की ओर जो ‘सृष्टि-क्रिया निर्माण’ कहलाता है और दूसरा बाहर के वृत्त से शुरू कर अंदर की ओर जो ‘संहार-क्रिया निर्माण’ कहलाता है। श्री यंत्र में ९ त्रिकोण या त्रिभुज होते हैं जो निराकार शिव की ९ मूल प्रकृतियों के द्योतक हैं। मुख्यतः दो प्रकार के श्रीयंत्र बनाये जाते हैं – सृष्टि क्रम और संहार क्रम। सृष्टि क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में ५ ऊध्र्वमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शिव त्रिकोण कहते हैं। ये ५ ज्ञानेंद्रियों के प्रतीक हैं। ४ अधोमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शक्ति त्रिकोण कहा जाता है। ये प्राण, मज्जा, शुक्र व जीवन के द्योतक हैं। संहार क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में ४ ऊध्र्वमुखी त्रिकोण शिव त्रिकोण होते हैं और ५ अधोमुखी त्रिकोण शक्ति त्रिकोण होते हैं। यह श्रीयंत्र कश्मीर संप्रदाय में कौल मत के अनुयायी उपयोग में लाते हैं।

श्री यंत्र में ९ त्रिभुजों का निर्माण इस प्रकार से किया जाता है कि उनसे मिलकर ४३ छोटे त्रिभुज बन जाते हैं जो ४३ विभिन्न देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। मध्य के सबसे छोटे त्रिभुज के बीच एक बिंदु होता है जो समाधि का सूचक है अर्थात यह शिव व शक्ति का संयुक्त रूप है। इसके चारों ओर जो ४३ त्रिकोण बनते हैं वे योग मार्ग के अनुसार यम १०, नियम १०, आसन ८, प्रत्याहार ५, धारण ५, प्राणायाम ३, ध्यान २, होते हैं । इन त्रिभुजों के बाहर की तरफ ८ कमल दल का समूह होता है जिसके चारों ओर १६ दल वाला कमल समूह होता है। इन सबके बाहर भूपुर है।

मनुष्य शरीर की भांति ही श्री यंत्र की संरचना में भी ९ चक्र होते हैं जिनका क्रम अंदर से बाहर की ओर इस प्रकार है- केंद्रस्थ रक्त बिंदु फिर पीला त्रिकोण जो सर्वसिद्धिप्रद कहलाता है। फिर हरे रंग के ८ त्रिकोण सर्वरक्षाकारी हैं। उसके बाहर काले रंग के १० त्रिकोण सर्वरोगनाशक हैं। फिर लाल रंग के १० त्रिकोण सर्वार्थ सिद्धि के प्रतीक हैं। उसके बाहर नीले १४ त्रिकोण सौभाग्यदायक हैं। फिर गुलाबी ८ कमलदल का समूह दुख, क्षोभ आदि के निवारण का प्रतीक है। उसके बाहर पीले रंग के १६ कमलदल का समूह इच्छापूर्ति कारक है। अंत में सबसे बाहर हरे रंग का भूपुर त्रैलोक्य मोहन के नाम से जाना जाता है। इन ९ चक्रों की अष्ठिात्री ९ देवियों के नाम इस प्रकार हैं:- १. त्रिपुरा २. त्रिपुरेशी ३. त्रिपुरसुंदरी ४. त्रिपुरवासिनी, ५. त्रिपुराश्री, ६. त्रिपुरामालिनी, ७. त्रिपुरासिद्धा, ८. त्रिपुरांबा और ९. महात्रिपुरसुंदरी।

आज बाजार में अनेक धातुओं ओर रत्नों के बने श्री यंत्र आसानी से प्राप्त हो जाते हैं, किंतु वे विधिवत सिद्ध व प्राणप्रतिष्ठित नहीं होते हैं । सिद्ध श्री यंत्र में विधिपूर्वक हवन-पूजन आदि करके देवी-देवताओं को प्रतिष्ठित किया जाता है तब श्री यंत्र समृद्धि देने वाला बनता है । ओर यह भी आवश्यक नहीं है कि श्री यंत्र रत्नों का ही बना हो, श्री यंत्र तांबे पर बना हो अथवा भोजपत्र पर बना हो, जब तक उसमें मंत्र व देवशक्ति विधिपूर्वक प्रवाहित नहीं की गई हो तब तक वह श्री प्रदाता अर्थात फल प्रदान करने वाला नहीं होता है, इसलिए सदैव विधिवत प्राणप्रतिष्ठित श्रीयन्त्र ही स्वीकार करना चाहिए।

श्रीयंत्र स्थापन पूजन विधान

इस यंत्र को पूजा स्थान के अलावा अपनी अलमारी में भी रखा जा सकता है, फैक्टरी या कारखाने अथवा किसी महत्वपूर्ण स्थान पर भी स्थापित किया जा सकता है। जिस दिन से यह स्थापित होता है, उसी दिन से साधक को इसका प्रभाव अनुभव होने लगता है।

श्रीयंत्र का पूजन विधान काफी विस्तृत है लेकिन साधकों की आवश्यकता अनुसार हम यहाँ बहुत ही सरल और स्पष्ट विधान दे रहे है। स्नान, ध्यान शुद्ध पीले रंग के वस्त्र धारण कर, पूर्व या उत्तर की ओर मुंह कर पीले या सफेद आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने एक चौकी स्थापित कर उस पर लाल वस्त्र बिछा लें। गृहस्थ व्यक्तियों को श्रीयंत्र का पूजन पत्नी सहित करना सिद्धि प्रदायक बताया गया है। आप स्वयं अथवा पत्नी सहित जब श्रीयंत्र का पूजन सम्पन्न करें तो पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ ही पूजन सम्पन्न करें।

साधना में सफलता हेतु गुरु पूजन आवश्यक है। अपने सामने स्थापित बाजोट पर गुरु चित्र/विग्रह/यंत्र/पादुका स्थापित कर लें और हाथ जोड़कर गुरु का ध्यान करें।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

इसके पश्चात् चावलों की ढेरी बनाकर उस पर एक सुपारी गणपति स्वरूप स्थापित कर लें। गणपति का पंचोपचार पूजन कुंकुम, अक्षत, चावल, पुष्प, इत्यादि से करें।
बाजोट पर एक ताम्रपात्र में पुष्पों का आसन देकर श्रीयंत्र (ताम्र/पारद या जिस स्वरूप में हो) स्थापित कर लें। इसके बाद एकाग्रता पूर्वक श्री यंत्र का आगे लिखे विधान से पूजन आरंभ करें।

“ श्री यन्त्र पूजन विधान (संक्षिप्त) “

( “प्रपञ्चसार तन्त्र”, “श्रीविद्यार्णव तन्त्र” एवं “शारदातिलक तन्त्र” के आधार पर )

विनियोगः-

ॐ हिरण्य – वर्णामित्यादि-पञ्चदशर्चस्य श्रीसूक्तस्याद्यायाः ऋचः श्री ऋषिः तां म आवहेति चतुर्दशानामृचां आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुताश्चत्वारः ऋचयः, आद्य-मन्त्र-त्रयाणां अनुष्टुप् छन्दः, कांसोऽस्मीत्यस्याः चतुर्थ्या वृहती छन्दः, पञ्चम-षष्ठयोः त्रिष्टुप् छन्दः, ततोऽष्टावनुष्टुभः, अन्त्या प्रस्तार-पंक्तिः छन्दः । श्रीरग्निश्च देवते । हिरण्य-वर्णां बीजं । “तां म आवह जातवेद” शक्तिः । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकम् । मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यासः-

श्री-आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुतेभ्यः ऋषिभ्यो नमः-शिरसि । अनुष्टुप्-बृहती-त्रिष्टुप्-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दोभ्यो नमः-मुखे । श्रीरग्निश्च देवताभ्यां नमः – हृदि । हिरण्य-वर्णां बीजाय नमः गुह्ये । “तां म आवह जातवेद” शक्तये नमः – पादयो । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकाय नमः नाभौ ।मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमःसर्वांगे।
अंग-न्यासः-

‘श्री-सूक्त’ के मन्त्रों में से एक-एक मन्त्र का उच्चारण करते हुए दाहिने हाथ की अँगुलियों से क्रमशः सिर, नेत्र, कान, नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों बाहु, हृदय, नाभि, लिंग, पायु (गुदा), उरु (जाँघ), जानु (घुटना), जँघा और पैरों में न्यास करें ।

१ ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – शिरसि
२ ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।। – नेत्रयोः
३ ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।। – कर्णयोः
४ ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नासिकायाम्
५ ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।। – मुखे
६ ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।। – कण्ठे
७॰ ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।। – बाह्वोः
८ ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।। – हृदये
९ ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नाभौ
१० ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।। – लिंगे
११ ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।। – पायौ
१२ ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।। – उर्वोः
१३ ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – जान्वोः
१४ ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।। – जंघयोः
१५ ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।। – पादयोः

षडङ्ग-न्यास〰️कर-न्यास〰️अंग-न्यास

ॐ हिरण्य-मय्यै नमः अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ चन्द्रायै नमः तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ रजत-स्रजायै नमः मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ हिरण्य-स्रजायै नमः अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
ॐ हिरण्यायै नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ हिरण्य-वर्णायै नमः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
दिग्-बन्धनः- “ॐ भूर्भुवः स्वरोम्” से दिग्-बन्धन करें ।

ध्यानः-

या सा पद्मासनस्था विपुल-कटि-तटी पद्म-पत्रायताक्षी,
गम्भीरावर्त्त-नाभि-स्तन-भार-नमिता शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया ।
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गन्ध-मणि-गण-खचितैः स्नापिता हेम-कुम्भैः,
नित्यं सा पद्म-हस्ता मम वसतु गृहे सर्व-मांगल्य-युक्ता ।।
अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः-पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैः
सकल-भुवन-माता ,सन्ततं श्रीः श्रियै नः।।
मानस-पूजनः-

इस प्रकार ध्यान करके भगवती लक्ष्मी का मानस पूजन करें –

ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा) ।

अब सर्व-देवोपयोगी पद्धति से( पात्रासादन पूजनं ) अर्घ्य एवं पाध्य -आचमनीय आदि पात्रों की स्थापना करके पीठ-पूजन करें।

‘सर्वतोभद्र-मण्डल′ आदि पर निम्न ‘पूजन-यन्त्र’ की स्थापना करके मण्डूकादि-पर-तत्त्वान्त देवताओं की पूजा करें । तत्पश्चात् पूर्वादि-क्रम से भगवती लक्ष्मी की पीठ-शक्तियों की अर्चना करें।

यथा –
श्री विभूत्यै नमः, श्री उन्नत्यै नमः, श्री कान्त्यै नमः, श्री सृष्ट्यै नमः, श्री कीर्त्यै नमः, श्री सन्नत्यै नमः, श्री व्युष्ट्यै नमः, श्री उत्कृष्ट्यै नमः।

मध्य में – ‘श्री ऋद्धयै नमः ।’
पुष्पाञ्जलि समर्पित कर मध्य में प्रसून-तूलिका की कल्पना करके – “श्री सर्व-शक्ति-कमलासनाय नमः” इस मन्त्र से समग्र ‘पीठ‘ का पूजन करे।

‘सहस्रार’ में गुरुदेव का पूजन कर एवं उनसे आज्ञा लेकर पूर्व-वत् पुनः ‘षडंग-न्यास’ करे। भगवती लक्ष्मी का ध्यान कर पर-संवित्-स्वरुपिणी तेजो-मयी देवी लक्ष्मी को नासा-पुट से पुष्पाञ्जलि में लाकर आह्वान करे।

यथा –
ॐ देवेशि ! भक्ति-सुलभे, परिवार-समन्विते !
तावत् त्वां पूजयिष्यामि, तावत् त्वं स्थिरा भव !

हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्य-मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।

श्री महा-लक्ष्मि ! इहागच्छ, इहागच्छ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्निधेहि, इह सन्निधेहि, इह सन्निरुध्वस्व, इह सन्निरुध्वस्व, इह सम्मुखी भव, इह अवगुण्ठिता भव !

आवाहनादि नव मुद्राएँ दिखाकर ‘अमृतीकरण’ एवं ‘परमीकरण’ करके –
“ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः प्राणाः ।
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः जीव इह स्थितः । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः सर्वेन्द्रियाणि । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः वाङ्-मनो-चक्षु-श्रोत्र-घ्राण-प्राण-पदानि इहैवागत्य सुखं चिर तिष्ठन्तु स्वाहा ।।

” इस प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र से लेलिहान-मुद्रा-पूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा करे ।

उक्त प्रकार आवाहनादि करके यथोपलब्ध द्रव्यों से भगवती की राजसी पूजा करे ।

यथा –
१ आसन –
ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! तुभ्यं पद्मासनं कल्पयामि नमः ।।
देवी के वाम भाग में कमल-पुष्प स्थापित करके ‘सिंहासन-मुद्रा’ और ‘पद्म-मुद्रा’ दिखाए ।

२ अर्घ्य-दान –
ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! एतत् ते अर्घ्यं कल्पयामि स्वाहा ।।
‘कमल-मुद्रा’ से भगवती के शिर पर अर्घ्य प्रदान करे ।

३ पाद्य –
ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! पाद्यं कल्पयामि नमः ।।
चरण-कमलों में ‘पाद्य’ समर्पित करके प्रणाम करे ।

४ आचमनीय –
ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै आचमनीयं कल्पयामि नमः ।।
मुख में आचमन प्रदान करके प्रणाम करे ।
५ मधु-पर्क –
ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।।
।। श्री महालक्ष्म्यै मधु-पर्क कल्पयामि स्वधा ।
पुनराचमनीयम् कल्पयामि ।।
पुनः आचमन समर्पित करें ।

६ स्नान (सुगन्धित द्रव्यों से उद्वर्तन करके स्नान कराए) –
ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै स्नानं कल्पयामि नमः ।।
‘स्नान’ कराकर केशादि मार्जन करने के बाद वस्त्र प्रदान करे । इसके पूर्व पुनः आचमन कराए ।

७ वस्त्र –
ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै वाससी परिकल्पयामि नमः ।।
पुनः आचमन कराए ।

८ आभूषण –
ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै सुवर्णानि भूषणानि कल्पयामि ।।

९ गन्ध –
ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै गन्धं समर्पयामि नमः ।।

१० पुष्प –
ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै एतानि पुष्पाणि वौषट् ।।

११ धूप –
ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे । नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।।
ॐ वनस्पति-रसोद्-भूतः, गन्धाढ्यो गन्धः उत्तमः । आघ्रेयः सर्व-देवानां, धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।।
।।श्री महा-लक्ष्म्यै धूपं आघ्रापयामि नमः ।।

१२ दीप –
ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।।
ॐ सुप्रकाशो महा-दीपः, सर्वतः तिमिरापहः । स बाह्यान्तर-ज्योतिः, दीपोऽयं प्रति-गृह्यताम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै प्रदीपं दर्शयामि नमः ।।
दीपक दिखाकर प्रणाम करे । पुनः आचमन कराए ।

१३ नैवेद्य –
देवी के समक्ष ‘चतुरस्र-मण्डल′ बनाकर उस पर ‘त्रिपादिका-आधार’ स्थापित करे । षट्-रस व्यञ्जन-युक्त ‘नैवेद्य-पात्र’ उस आधार पर रखें । ‘वायु-बीज’ (यं) नैवेद्य के दोषों को सुखाकर, ‘अग्नि-बीज’ (रं) से उसका दहन करे । ‘सुधा-बीज’ (वं) से नैवेद्य का ‘अमृतीकरण’ करें । बाँएँ हाथ के अँगूठे से नैवेद्य-पात्र को स्पर्श करते हुए दाहिने हाथ में सुसंस्कृत अमृत-मय जल-पात्र लेकर ‘नैवेद्य’ समर्पित करें –
ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।
ॐ सत्पात्र-सिद्धं सुहविः, विविधानेक-भक्षणम् । नैवेद्यं निवेदयामि, सानुगाय गृहाण तत् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै नैवेद्यं निवेदयामि नमः ।।
चुलूकोदक (दाईं हथेली में जल) से ‘नैवेद्य’ समर्पित करें ।
दूसरे पात्र में अमृतीकरण जल लेकर “ॐ हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का पाठ करके – “श्री महा-लक्ष्म्यै अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा” । श्री महा-लक्ष्मि ! अपोशनं कल्पयामि स्वाहा ।
तत्पश्चात् “प्राणाय स्वाहा” आदि का उच्चारण करते हुए ‘पञ्च प्राण-मुद्राएँ’ दिखाएँ ।
“हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का दस बार पाठ करके समर्पित करें ।
फिर ‘उत्तरापोशन’ कराएँ । ‘नैवेद्य-मुद्रा’ दिखाकर प्रणाम करें । ‘नैवेद्य-पात्र’ को ईशान या उत्तर दिशा में रखें । नैवेद्य-स्थान को जल से साफ कर ताम्बूल प्रदान करें ।

१४ ताम्बूल –
ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्मि ! ऐं हं हं हं इदम् ताम्बूलं गृहाण, स्वाहा ।।
‘ताम्बूल′ देकर प्रणाम करें ।

आवरण-पूजा पुरश्चरण-विधान
आवरण-पूजा
भगवती से उनके परिवार की अर्चना हेतु अनुमति माँग कर ‘आवरण-पूजा’ करे ।

यथा –
ॐ संविन्मयि ! परे देवि ! परामृत-रस-प्रिये ! अनुज्ञां देहि मे मातः ! परिवारार्चनाय ते ।।

प्रथम आवरण केसरों में ‘षडंग-शक्तियों’ का पूजन करे –

१ हिरण्य-मय्यै नमः हृदयाय नमः । हृदय-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२ चन्द्रायै नमः शिरसे स्वाहा । शिरः-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३ रजत-स्रजायै नमः शिखायै वषट् । शिखा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४ हिरण्य-स्रजायै नमः कवचाय हुम् । कवच-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५ हिरण्यायै नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् । नेत्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६ हिरण्य-वर्णायै नमः अस्त्राय फट् । अस्त्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
प्रथम आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा –
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, प्रथमावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
पुष्पाञ्जलि प्रदान करे ।

द्वितीय आवरण पत्रों में पूर्व से प्रारम्भ करके वामावर्त-क्रम से ‘पद्मा, पद्म-वर्णा, पद्मस्था, आर्द्रा, तर्पयन्ती, तृप्ता, ज्वलन्ती’ एवं ‘स्वर्ण-प्राकारा’ का पूजन-तर्पण करे । यथा –
१ पद्मायै नमः । पद्मा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२ पद्म-वर्णायै नमः । पद्म-वर्णा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३ पद्मस्थायै नमः । पद्मस्था-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४ आर्द्रायै नमः । आर्द्रा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५ तर्पयन्त्यै नमः । तर्पयन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६ तृप्तायै नमः । तृप्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
७ ज्वलन्त्यै नमः । ज्वलन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
८ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
द्वितीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें ।

यथा –
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, द्वितीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।

तृतीय आवरण भू-पुर में इन्द्र आदि दिक्-पालों का पूजन-तर्पण करे । यथा –
लं इन्द्राय नमः – पूर्वे । रं अग्न्ये नमः – अग्नि कोणे । यं यमाय नमः – दक्षिणे । क्षं निऋतये नमः – नैऋत-कोणे । वं वरुणाय नमः – पश्चिमे । यं वायवे नमः – वायु-कोणे । सं सोमाय नमः – उत्तरे । हां ईशानाय नमः – ईशान-कोणे । आं ब्रह्मणे नमः – इन्द्र और ईशान के बीच । ह्रीं अनन्ताय नमः – वरुण और निऋति के बीच ।
तृतीय आवरण की पूजा अब कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा –
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, त

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Nalin Dixit मार्च 7, 2025 मार्च 7, 2025
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