रिपोर्ट नलिन दीक्षित
स्वाभाविक था कि यूरोपीय देशों ने सोना बेचकर उससे हथियार खरीदे थे।
युद्ध के बाद वाशिंगटन में सभी देशों की मीटिंग हुई और यही समस्या रखी गयी कि किस मुद्रा में व्यापार करें? क्योंकि ब्रिटिश पाउंड की स्थिति खराब थी। तब अमेरिका ने कहा कि डॉलर में लेन-देन करो।
भारत चीन को डॉलर देगा, चीन चाहे तो इस डॉलर को आगे प्रयोग करे या फिर अमेरिका को देकर सोना ले जाए, क्योंकि अमेरिका के पास सोने की कमी नहीं थी। 28 ग्राम सोने के बदले 35 डॉलर का मूल्य तय हुआ।
इस तरह सभी देश खुश हो गए और डॉलर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बन गया। अमेरिका पर भी दबाव था।
कि ज्यादा डॉलर न छापे अन्यथा उतना गोल्ड कहाँ से लाएगा? 1960 में सोने के भाव में बढ़ोत्तरी हुई, 28 ग्राम सोना 40 डॉलर तक पहुँच गया।
ऐसे में लोग 35 डॉलर में अमेरिका से गोल्ड खरीदते फिर 40 डॉलर मे लंदन के गोल्ड एक्सचेंज पर बेच देते।
उस समय ब्रिटेन को लोन चाहिए था। इसलिए अमेरिका ने ब्रिटेन के मुँह में पैसे भरकर यह मार्केट ही बंद करवा दिया। यही कारण है कि आज भी दोनों के रिश्ते अटूट हैं क्योंकि मज़बूरी के साथी हैं।
15 अगस्त 1971 को अचानक अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन घोषणा कर देते हैं कि अब से डॉलर के बदले गोल्ड वाली स्कीम ही बंद।
ये विश्व को #धोखा था, मगर निक्सन को इसकी परवाह नहीं थी।
दुनिया का हर देश डॉलर लिये बैठा था, वो इसे फाड़ भी नहीं सकता था। उस समय डॉलर को बचाना अमेरिका से ज्यादा दुनिया का सिरदर्द बन गया, क्योंकि यदि डॉलर खत्म हो गया तो आपके पास तो विदेशी मुद्रा भंडार ही नहीं बचा।
उसी बीच अरब देशों में तेल निकला, इन अरब देशों में राजपरिवार का शासन था।
जिन्हें हमेशा क्रांति होने का डर था। अमेरिका ने इन्हें सुरक्षा दी और सुनिश्चित किया कि ये डॉलर में ही तेल बेचें।
जाहिर है कि ज़ब तेल डॉलर में मिलेगा तो अन्य देशों के लिये डॉलर का रिजर्व रखना मज़बूरी होगी। ज़ब बैंकिंग सिस्टम उन्नत होने लगा तो अमेरिका ने स्विफ्ट सिस्टम में खुद को आगे किया।
ये ऐसा होता है कि मानो आपको SBI से न्यूजीलैंड की किसी बैंक में पैसे भेजना है तो जरूरी नहीं कि दोनों बैंक एक दूसरे को जानते हों। ऐसे में पहले पैसा अमेरिकन बैंक जाएगा और वहाँ से न्यूजीलैंड। जाहिर है डॉलर का रोल यहाँ भी आएगा।
हालांकि इसी स्विफ्ट को चुनौती देने भारत का UPI आया है, अब आप समझ गए होंगे कि राहुल गाँधी और पी चिदंबरम इसके विरोध में क्यों थे?
वे बेवकूफ नहीं हैं। बस अमेरिकी डॉलर का नमक अदा कर रहे हैं।
बेवकूफ तो हम हैं जिन्हें उनकी आवाज में लोकतंत्र दिख रहा है।
खैर डॉलर के डोमिनेशन की कहानी यही है, अमेरिका अरबों डॉलर खर्च करता है, ताकि अन्य देशों में राजनीतिक हस्तक्षेप कर सके।
अमेरिका के लिये बेहद जरूरी है कि किसी भी देश की सरकार डॉलर का विरोध न करे।
UPI आ गया तो स्विफ्ट को खा जाएगा, इसलिए पहले NGO को फंडिंग होती है, फिर राहुल गाँधी और चिदंबरम जैसे लोग UPI के खिलाफ बोलते हैं।
सद्दाम हुसैन करीब 25 वर्ष से तानाशाह था लेकिन लोकतंत्र की आड़ में उसे तब ही मारा गया ज़ब उसने डॉलर को चुनौती दी। ये हस्तक्षेप करने के लिये अमेरिका को अरबों डॉलर खर्च करने पड़ते हैं एक इकोसिस्टम बनाना पड़ता है।
अब आपको अमेरिका की ये नीति चाहे जैसी भी लगी हो लेकिन उसके अर्थशास्त्रियों की प्रशंसा करनी होगी। इसमें हमारे लिये भी कुछ सबक हैं।
आज ट्रम्प है, कल बाइडन थे, परसों ओबामा थे तो नरसो बुश थे। सभी ने अमेरिका के हित में ही निर्णय लिये हैं ना कि भारत के हित में, इसलिए हमें किसी का प्रशंसक होने की जरूरत नहीं है। हमें सिर्फ अपने देश का हित देखना है।
भारत सरकार ने अपने प्रयास तेज कर दिये हैं, अरब देशों से संबंध सुधारकर UPI को वहाँ भी ले जा रहे हैं, इसीलिए नूपुर शर्मा जैसे केस में थोड़ा झुकना पड़ता है।
यूरोप और ऑस्ट्रेलिया के लिये हमें 1947 वाला विश्वसनीय अमेरिका बनना है इसलिए सीधे किसी भी देश पर मिलिट्री एक्शन लेकर युद्ध के हालात नहीं बना सकते।
हर चीज बोलने लिखने की नहीं होती, नागरिकों को अपने विवेक का भी प्रयोग करना होगा। आपको समझना होगा कि भारत मोदी युग में अचानक इतना कैसे बदलने लगा। हो सकता है हम सुपर पॉवर ना बन सकें मगर प्रयास भी ना करें, ये कैसे संभव है।